रविवार, 1 सितंबर 2019

तराना-ए-मिल्ली



तराना-ए-मिल्ली मुहम्मद इक़बाल द्वारा लिखी गई एक उर्दु शायरी है अपनी शुरुआती कविताओं में इक़बाल अखंड और स्वतंत्र भारत की बात किया करते थे, जहाँ हिंदू और मुसलमान साथ-साथ रह सकेंगे, लेकिन भाईचारे और बहुलवाद का ये विश्वास जल्द ही एकेश्वरवाद और व्यक्तिवाद में बदलने लगा.

1904 में तराना-ए-हिंद ('हिंदी हैं हम वतन है हिंदोस्तां हमारा') लिखने वाले इक़बाल ने 1910 में तराना-ए-मिल्ली('मुस्लिम हैं हम, वतन है सारा जहाँ हमारा') लिख दिया.

दो दशक बाद 1930 में इलाहाबाद में मुस्लिम लीग की बैठक की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने मुसलमानों के लिए अलग देश का विचार उछाल दिया. लेकिन इक़बाल की इस्लामिक राष्ट्रवाद की विचारधारा में इंसानों के ज़रिए बनाए गए सरहदों के लिए कोई जगह नहीं थी.

उन्होंने यह कविता आपनी हि कविता तराना-ए-हिन्दी के विरोध लिखी है, जब उन्होंने अपने दृष्टिकोण को बदलकर द्विराष्ट्र सिद्धांत को स्वीकार कर लिया।

चीन ओ अरब हमारा, हिन्दोसताँ हमारा
मुस्लिम हैं हम, वतन है सारा जहाँ हमारा
तौहीद की अमानत, सीनों में है हमारे
आसाँ नहीं मिटाना, नाम ओ निशाँ हमारा
दुनिया के बुतकदों में, पहले वह घर ख़ुदा का
हम इस के पासबाँ हैं, वो पासबाँ हमारा
तेग़ों के साये में हम, पल कर जवाँ हुए हैं
ख़ंजर हिलाल का है, क़ौमी निशाँ हमारा
मग़रिब की वादियों में, गूँजी अज़ाँ हमारी
थमता न था किसी से, सैल-ए-रवाँ हमारा
बातिल से दबने वाले, ऐ आसमाँ नहीं हम
सौ बार कर चुका है, तू इम्तिहाँ हमारा
ऐ गुलिस्ताँ-ए-अंदलुस! वो दिन हैं याद तुझको
था तेरी डालियों में, जब आशियाँ हमारा
ऐ मौज-ए-दजला, तू भी पहचानती है हमको
अब तक है तेरा दरिया, अफ़सानाख़्वाँ हमारा
ऐ अर्ज़-ए-पाक तेरी, हुर्मत पे कट मरे हम
है ख़ूँ तरी रगों में, अब तक रवाँ हमारा
सालार-ए-कारवाँ है, मीर-ए-हिजाज़ अपना
इस नाम से है बाक़ी, आराम-ए-जाँ हमारा
इक़बाल का तराना, बाँग-ए-दरा है गोया
होता है जादा पैमा, फिर कारवाँ हमारा

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सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा - तराना-ए-हिन्दी




तराना-ए-हिन्दी, प्रसिद्ध शायर मुहम्मद इक़बाल द्वारा ईसवी 1805 मे उर्दू भाषा में लिखी गई देशप्रेम की एक गीत है जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ब्रिटिश राज के विरोध का प्रतीक बनी और आज भी देश-भक्ति के गीत के रूप में भारत में गाया जाता है। और सबसे पहले सरकारी कालेज, लाहौर में पढ़कर सुनाया था। यह इक़बाल की रचना 'बंग-ए-दारा' में शामिल है।
शायर मुहम्मद इक़बाल

इसके बोल इस प्रकार हैं -

سارے جہاں سے اچھا ہندوستاں ہمارا
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा।

ہم بلبليں ہيں اس کي، يہ گلستاں ہمارا
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसताँ हमारा।

غربت ميں ہوں اگر ہم، رہتا ہے دل وطن ميں
 ग़ुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में।

پربت وہ سب سے اونچا، ہمسايہ آسماں کا
परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमाँ का।

وہ سنتري ہمارا، وہ پاسباں ہمارا
 वो संतरी हमारा, वो पासबाँ हमारा।

گودي ميں کھيلتي ہيں اس کي ہزاروں ندياں
 गोदी में खेलती हैं, उसकी हज़ारों नदियाँ।

گلشن ہے جن کے دم سے رشک جناں ہمارا
 गुलशन है जिनके दम से, रश्क-ए-जिनाँ हमारा।

اے آب رود گنگا، وہ دن ہيں ياد تجھ کو؟
ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझको।

اترا ترے کنارے جب کارواں ہمارا
 उतरा तेरे किनारे, जब कारवाँ हमारा।

مذہب نہيں سکھاتا آپس ميں بير رکھنا
 मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना।

ہندي ہيں ہم وطن ہے ہندوستاں ہمارا
 हिन्दी हैं हम वतन हैं, हिन्दोस्ताँ हमारा।

يونان و مصر و روما سب مٹ گئے جہاں سے
 यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रूमा, सब मिट गए जहाँ से।

اب تک مگر ہے باقي نام و نشاں ہمارا
 अब तक मगर है बाक़ी, नाम-ओ-निशाँ हमारा।

کچھ بات ہے کہ ہستي مٹتي نہيں ہماري
 कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी।

صديوں رہا ہے دشمن دور زماں ہمارا
 सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़माँ हमारा।

اقبال! کوئي محرم اپنا نہيں جہاں ميں
 'इक़बाल' कोई महरम, अपना नहीं जहाँ में।

معلوم کيا کسي کو درد نہاں ہمارا
मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहाँ हमारा।


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